कितना अकेला हो गया मै !
कितना पंगु हो गया मै !
कितना असहाय हो गया मै !
एक चौराहे पर सांसें रोके खड़ा हूँ मै !
कोई दिशा नहीं ,कोई लक्ष्य नहीं ,कोई इरादा नहीं ,
यदि लक्ष्य है तो बाधा बन कर खड़े है,
अपने ही सदा की तरह |
अपने ही सदा की तरह |
यदि इरादे है भी तो,
उसपर अन्धकार बनकर छाये है अपने ही |
उसपर अन्धकार बनकर छाये है अपने ही |
और घोर अंधकार में कही कोई चल पाया है?
जो मै चल सकूँ ?
जो मै चल सकूँ ?
बस रास्ते पर पड़े पत्थर सा,
उससे अलग भी तो नहीं हूँ मै!
उससे अलग भी तो नहीं हूँ मै!
जब भी कोई कोशिश करता हूँ
की रुके रास्ते चल पड़े ,
की रुके रास्ते चल पड़े ,
अपनी ही अनुभूतियाँ खड़ी हो जाती है,
बाधा बन कर |
बाधा बन कर |
बाहरी अवरोधों को तो ठोकर से हटाया जा सकता है ,
संघर्ष किया जा सकता है उनसे,
पर अपने बहुत प्यारे लोगो से !
पर अपने बहुत प्यारे लोगो से !
शायद नियति ही यही है,
चौराहे का पत्थर बन पड़ा रहना |
जो सिर्फ तब हिल सके जब कोई ठोकर हटा दे ,
या कोई गाड़ी कुचल कर उछाल दे कही |
पर रास्ता तो फिर भी नहीं खुलेगा ना,
जब तक रास्ते खुद से तय ना हो,
लक्ष्य खुद से तय ना हो ,
लक्ष्य खुद से तय ना हो ,
और उसमे अपनों की खिलखिलाहट ना हो |
अहिल्या की भांति श्रापित पत्थर ही हूँ मै,
चौराहे के बीच पड़ा हुआ |
अहिल्या के लिए तो राम का आना तय था ,
पर मै तो अकेला हूँ और पहचान खो चुका हूँ |
और जब कोई पहचानता ही नहीं!
तो राम भी क्या करेंगे ?
मुझे लगा श्राप तो अहिल्या से भी कठोर है |