शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

होली नहीं खेलता मै

होली नहीं खेलता मै
बचपन बीतने के बाद से
बचपन कब बीता 
और मै बड़ा हो गया
पता ही नहीं चला
क्योकि 
अपने जिनके कारण हम 
बचपन पकडे रखना चाहते है
वे हाथ छोड़ झटक देते है 
बचपन को
साया देने वाले अधिकार को
खैर 
होली नहीं खेली बहुत साल से
तभी कोई आया 
हवा का झोंका बनकर
खाली जीवन में 
और अपने साथ लायी
एक मुट्ठी बदली और
बंजर जमीन पर नम हवा 
तथा
मुट्ठी भर बदली से निकली 
फुहार ने
उगा दिए कुछ पौधे
होली मै तब भी नहीं खेलता था
परन्तु 
रंगों से सराबोर हो जाता था
अच्छा लगता था
किसी का ठठा कर हँसना
खुद रंगा होकर सबको रंग देना
ठहाकों से तथा अपने रंगों से
मेरी बंजर जमीन पर उगे पौधे
जब एक दिन पहले 
तैयारी करते थे
कपड़ों की रंगों की 
तथा पिचकारी की
अगले सुबह ही उठकर 
शरीर पर मलते थे
तेल या क्रीम ,रंगों से बचने को
फिर रंग फेंकते थे ,बचते थे 
और
खुद रंग भी जाते थे सराबोर
फिर शीशे में खुद को पहचानना 
और
दूसरों को देख कर 
ठठा कर हँसना
फिर प्यार से गोद में बैठ कर 
अपने रंगों से 
सराबोर कर देना मुझे भी
कितना सुखद था ,
कितनी ऊर्जा थी
कितना जीवन था ,
जीवन का अर्थ था
फिर 
अचानक 
बुलावा आ गया किसी का
जहा से आई थी बदली
मै ही भूल गया था 
बादल आते है बरसते है ,
धरती को नमी देते है
कुछ बारिश रुक जाती है
जीवन बन कर 
जीवन के कुए में ,
तालाब में या झील में
और 
कुछ को 
सूरज सोख लेता है वापस
और 
पहुंचा देता है वही हर बूँद को
जहा से उसे दुबारा 
तय करना होता है सफ़र
इस क्रिया को भूल जाना 
और
न पकडे जाने वाली चीज को
पकड़ कर रखने की कोशिश ही 
शायद संबंध है,संवेग है 
और 
अनबूझ पहेली भी
मै फिर अकेला निहार रहा हूँ
लोगो को होली खेलता 
होली की बात करता
मैंने भी सन्देश भेज दिया 
और हो गयी होली
धीरे धीरे मेरे पौधे भी 
अपनी नयी जमीन पा गये
जहा वे विस्तार पा सके
और 
फिर मेरा भी 
सफ़र शुरू हो जायेगा
अपनी बदली को ढूढने और
उसमे समाहित हो जाने को  ।





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