रविवार, 15 फ़रवरी 2015

हाँ मैं खुली किताब हूँ

हाँ मैं खुली किताब हूँ
जिसके अक्षर
वक्त की बारिश ने धो दिए है ।
कैसे पढ़े कोई
हाँ तुम खुली किताब हो
पर उसकी लिपि  मुझे पढनी नहीं आती
तो हम पढ़े कैसे  किताबे खुली है और
हवा में फड़फड़ा रहे है
इसके पन्ने  उड़ जाने को आतुर
पर नियति के धागों ने
कस कर पकड़ रखा है
और खुली किताबे खुली होकर भी
अनबूझ और अपठनीय है
अपनी नियति और जिंदगी की तरह ।

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