पहचान उन सभी का मंच है जो जिंदगी को जीते नहीं जीने का निर्वाह करते है .वे उन लोगो में नहीं है जिन्हें जीवन मिला है या जीने का मकसद उनके साथ रहता है .बस जीने और घिसटने के बीच दिल वालो की कलम से और दिल से जो निकल जाता है वही कविता है .पहली कविता भी तों आंसू से निकली थी .आंसू अपने दर्द के हो या समाज के ,वे निकलेंगे तों कविता भी निकलेगी और वही दिलवालो की ;पहचान ;है
बुधवार, 16 सितंबर 2015
मेरी राहो में कांटे जिसने भी बिछाये जब वो मेरे पांव में चुभे और जोर से चीखा मैं दर्द से जरूर उनके कानो के परदे भी हिले होंगे और दुख रहे होंगे अभी तक दोस्त मेरा घाव शायद जल्दी भर जायेगा क्योकी बेजान कांटे से हुआ है पर तुम्हारा नहीं भर पायेगा जल्दी क्योकि इंसानी चीख से घायल हुए हो तुम । इंसान की जब भी निकलती है चीख या कराह वो छलनी कर देती है अंदर तक और दीखती भी नहीं पर अचेतन में हथौड़े के तरह चोट करती रहती है जिंदगी भर ।
मंगलवार, 15 सितंबर 2015
साथ चलने की कसम खाये हुये है
जो मेरे साथ चलने की कसम खाए हुए हैं
वो खुद ही बर्बादी के करीब आये हुए है |
वो खुद ही बर्बादी के करीब आये हुए है |
सोमवार, 14 सितंबर 2015
जब और जितनी बार भी अपने घर लौटता हूँ और दरवाजा खोलता हूँ बिजली सी कौंध जाती है और दीवारो पर बन जाती है अंनगिनत तस्वीरें और मन का बादल बरस उठता है । लहरो पर तैर जाती है यादो की कितनी कागजी नावें और कागज की नाव तो कागज की ही होती है खो जाती है अथाह पानी में और सन्नाटा पसर जाता है दीवारो से छत तक और बैठक से बिस्तर तक जब और जितनी बार भी अपने घर लौटता हूँ और दरवाजा खोलता हूँ बिजली सी कौंध जाती है और दीवारो पर बन जाती है अंनगिनत तस्वीरें और मन का बादल बरस उठता है । लहरो पर तैर जाती है यादो की कितनी कागजी नावें और कागज की नाव तो कागज की ही होती है खो जाती है अथाह पानी में और सन्नाटा पसर जाता है दीवारो से छत तक और बैठक से बिस्तर तक ।
जब और जितनी बार भी
अपने घर लौटता हूँ
और
दरवाजा खोलता हूँ
बिजली सी कौंध जाती है
और
दीवारो पर बन जाती है
अंनगिनत तस्वीरें
और
मन का बादल बरस उठता है
लहरो पर तैर जाती है
यादो की कितनी कागजी नावें
और
कागज की नाव
तो कागज की ही होती है
खो जाती है अथाह पानी में
और
सन्नाटा पसर जाता है
दीवारो से छत तक
और
बैठक से बिस्तर तक
अपने घर लौटता हूँ
और
दरवाजा खोलता हूँ
बिजली सी कौंध जाती है
और
दीवारो पर बन जाती है
अंनगिनत तस्वीरें
और
मन का बादल बरस उठता है
लहरो पर तैर जाती है
यादो की कितनी कागजी नावें
और
कागज की नाव
तो कागज की ही होती है
खो जाती है अथाह पानी में
और
सन्नाटा पसर जाता है
दीवारो से छत तक
और
बैठक से बिस्तर तक
रविवार, 6 सितंबर 2015
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