रविवार, 23 अप्रैल 2017

जरूर जरूर कोई बहुत ही अपना था ।

रोटी थी कपड़ा और मकान अच्छा सा
जरूर जरूर ये कोई अपना सपना था
वो बिन पहचाने बगल से निकल गया
जरूर जरूर कोई बहुत ही अपना था ।

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

कभी समन्दर के किनारे

कभी
समन्दर के किनारे
खड़े होकर
दूर देखा है आप ने
लगता है कि
कुछ ही दूर पर
आसमान मिल रहा है
समन्दर से
पर जब आगे बढ़ते है
नाव से या जहाज से
तो वो मिलन
और दूर चला जाता है
वैसी ही होती है
कुछ जिंदगियां
और कुछ के भविष्य
इच्छाये ,खुशियाँ और आशाएं ।
मैं भी
ताक रहा हूँ टुकुर टुकुर
दूर से दूर तक
बहुत दिनों से
और भाग रहा हूँ लगातार
की आसमान को छू लूँ  ।
पर
या तो आसमान छल करता है
या
मेरा पुरुषार्थ ही जवाब दे जाता है
और
हाथ भी तो छोटे पड़ जाते है मेरे ।

पेड़ भी जड़ होता है

पेड़ भी जड़ होता है
पर अपनी जड़ो
और पत्तो के साथ
और कोई कोई
फल के भी साथ
वो देता है छाया
भरता है पेट
और सूख जाता है
तब भी
बन जाता है ईंधन
पर जब कोई इंसान
जड़ हो जाता है
तो
न बन पता है सहारा
न सम्बल
और न ही प्रेरणा ।
न छाया ,न फल ,न ईंधन
कितना बेकार होता है ।
ऐसा इंसा
और
मैं ऐसे कई इंसानो को
जानता हूँ
जो पेड़ से जलते है
और अपने आप में भी ।

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

इतनी दूर क्यो चले गये समंदर को देखने मेरी आँखों मे देख लेते उतना ही खारा है ।

इतनी दूर क्यो चले गये समंदर को देखने
मेरी आँखों मे देख लेते उतना ही खारा है ।

इतनी दूर तुम कहा चले गये हो समंदर को देखने मेरी आँखों मे देख लेते उतना ही गहरा और खारा है ।

इतनी दूर तुम कहा चले गये हो समंदर को देखने
मेरी आँखों मे देख लेते उतना ही गहरा और खारा है ।

काफी दिनों से खुद से ही बात कर रहा हूँ या तो बात नहीं होती या लफ्ज नहीं होते ।

काफी दिनों से खुद से ही बात कर रहा हूँ
या तो बात नहीं होती या लफ्ज नहीं होते ।

इसीलिए आज बाजार में हूँ ।और बिकने वाले हर इश्तहार में हूँ ।

सुनो सुनो सुनो ,
कोई मुझे भी खरीद लो
जी बिकाऊ हूँ मैं
जैसा भी हूँ
पर आज बाजार में हूँ
बाजार का युग है
इतना खोटा भी नहीं कि
मेरी कुछ कीमत ही नही 
बोली तो लगाओ
कही से तो शुरू करो
चलो तुम रोटी से शुरू करो
चुपड़ी नहीं रूखी ही सही
और तुम कपडे से
उतरन भी चलेगी
तुम नीद की जगह दोगे
पर नीद कौन देगा
पर बोलो ,जो चाहो बोलो
इतना सस्ता इमांन कहा मिलेगा
इतना सस्ता ज्ञान कहा मिलेगा
और
आज इंसान कहा मिलेगा
तो बताओ कौन खरीदेगा मुझे
जी हा
कसम खुदा की मैं बाजार में हूँ
खरीद रहे हो बेपनाह हुस्न
लोगो के इमांन
जनता के रहनुमा
तो मुझमे क्या कमी है
ईमान से डर लगता है
या फिर
इंसान से डर लगता है
अरे नहीं
बिकाऊ है आज ये भी
कोई तो बोलो
मेरे इंसान और ईमान को
कोई तो सिक्को में तोलो
कोई नहीं बोलोगे
तो रो पडूंगा मैं बेबसी पर
फिर
आंसू तो बिलकूल नहीं खरीदोगे
अब हुस्न कहा से लाऊँ
मैं भी दल्ला हो सकता हूँ
ये कैसे समझाऊँ
या फिर ये बनी हुयी इमेज
मिटा के आऊँ
तो उसके लिए
किस लॉन्ड्री में जाऊं ।
कोई तो खरीद लो न मुझे ।
जी हां मैं आज बिकाऊ हूँ
और
इसीलिए आज बाजार में हूँ ।
और
बिकने वाले हर इश्तहार में हूँ ।

मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

कहा अकेला हूँ मैं देखो

कहा अकेला हूँ मैं देखो
सूरज चाँद सितारे  मेरे
चिड़ियों का कलरव है मेरा
धूप है मेरी धूल है मेरी
बादल मेरे बारिश मेरी
घर की गर वीरानी मेरी
तो सडंको के शोर भी मेरे
बाज़ारों की हलचल मेरी
और नाचता मोर भी मेरा
छत मेरी दीवारें मेरी
घर में जो है सारे मेरे
बातें मेरी और राते मेरी
वादे मेरे और यादें मेरी
और किसी को क्या चाहिए
इतना तो सब कुछ घेरे है
जीवन क्या है बस डेरा है
आज यहाँ है और कही कल
कुछ साँसों का बस फेरा है
सभी अकेले ही आते है
सभी अकेले ही जाते है
कौन अकेला नहीं यह पर
भीड़ में है पर बहुत अकेले
मैं अकेला घिरा हूँ कितना
इतना सब कुछ पास है मेरे
लोगों के जीवन में देखो
विकट अंधेरे बहुत अंधेरे
उन सबसे तो मैं अच्छा हूँ
जीवन को अब क्या चाहिए
थोड़ी ख़ुशियाँ थोड़ी साँसे
मैं तो अब भी एक बच्चा हूँ
जल्द बड़ा भी हो जाऊँगा
फिर से खड़ा भी हो जाऊँगा
कैसा अकेला कौन अकेला
दूर खड़ा अब मौन अकेला
मेरे गीत और मेरे ठहाके
दूर रुकेंगे कही पे जाके
तब तक तो चलते रहना है
दीपक बन जलते रहना है ।

गाना तो सुना था मैं और मेरी तन्हाई

गाना तो सुना था
मैं और मेरी तन्हाई
पर देखूँगा भी
और भोगूँगा भी
ये हरगिज़ नहीं सोचा था
तन्हाई भी
कभी कभी प्यारी लगती है
पर
बोझ बन जाती है ज़्यादातर
इतना भारी बोझ
जो उठता ही नहीं है
फिर पटक कर बैठ जाना
उसी पर
और रास्ता भी क्या है
छोड़ो
इस बोझ को नहीं उठा पाओगे
इसलिए तन्हाई से भी प्यार करो
और
जीवन की नैया ऐसे ही पार करो । 

जीवन यात्रा से

१--जीवन यात्रा से ---------------------------

बैठता हूँ रोज  इस इरादे के साथ की लिखू
पर उठ जाता हूँ बस सोच कर निरर्थक
क्या लिखूँ
वो बचपन जो गाँव में बीता था
खेती में खलिहान में और बगीचों में
गाँव के तालाब में भैंस की पीठ पर
अपने मुँह से
सीधी साधी गाय के धान से सीधे दूध पीना
या भैंस को दूहते बाबा का मुँह में धार मार देना
जानवरों के चारे की मशीन चलाना शौक़ से
या घूमना बेलो के पीछे पीछे
चाहे पानी खेत में पहुँचाने की रहट हो
या गाना पेरने का कोल्हू या
खलिहॉन में अनाज की दबायी
मचान पर सो कर या बैठ कर खेत की रखवाली
या ख़ुद के सर पर भी लाद कर लाना
वो गन्ना हो , मक्का हो , धान या जौ या अरहर
ख़ुद के खेत में गन्ना पर
चुपके से दूसरे का तोड़ कर चूसना
ख़ुद के पेड़ में पर आम पर
दूसरे के पेड़ पर पत्थर मार तोड़ना
पके है नीचे कि डालियों में भी आम
पर सबसे ऊँची डाल पर चढ़ वही तोड़ने की ज़िद
क्या लिख़ू
वो कपड़ा लपेट कर बनाया गया किताबों का बसता
वो लकड़ी की पट्टी और शीशी में घुली स्याही
काले रंग से रंग कर पट्टी को चमकाने की जद्दोजहद
गाँव में बेकार उग गए
नरगट को छील कर बनायी गयी क़लम
और उसी से लिखने की कोशिश
मास्टर साहब या मुंशी जी की आवाज के साथ
समवेत सवार में क ख ग या
दो दुनी चार के पहाड़े बोलने की आवाज़ें
क्या लिखू
वो गाँव में आयीं बाढ़ जिसके खेत में शौच भी मुश्किल
या वो बूढ़ा बहुत बड़ा साँप जिसे पूर्वज मानता गाँव
हल्ला बोल कर पूरे गाँव का तालाब में उतरना
और हलचल से मिट्टी हो गए तालाब से मछली पकड़ना
गाय भैंस चराना और अपनी गाय तथा भैंस को पहचानना
आवाज देने पर अपनी ही गाय या भैंस का आ जाना
उस पेड़ पर भूत की कहानी तो पोखरी मे चुड़ैल की
क्या लिखूँ
गाँव के पास के बाज़ार पर या आसपास लगने वाले बाज़ार पर
अलग अलग जंगह लगने वाले मेलों पर
या गाँव में बिना डरे बाहर सबके सोने पर
गाँव की हवा पर या कूँए के पानी पर
पेड़ों की अमरायी पर या छप्पर की उठायी पर
गाँव के संस्कार पर या अब के रिश्तों के व्यापार पर
ये सब पूरी कविता या कहानी के विषय है
इसलिए छोड़ देता हूँ आज इसे अनुक्रमिका मान कर
हा लिखूँगा सब पर क्योंकि जिया है मैंने ख़ुद ये सब ।

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

पच्चीस साल बाद फिर यही आएंगे ।

खिड़की से झांकता पहाड़
और
लाल ,हरे छतों वाले मकान
पहाड़ ढके है हरीतिमा से
और
देवदार के वृक्षो को देखकर
लगता है
उनमें प्रतियोगिता होती है
देखो जमीन से निकला मैं
निकल जाऊंगा सूरज के पास
कभी लगता है ऊँचाई पर बैठकर
कि
इन वृक्षो पर टंगे है ये घर
या घरो की दीवारों पर उगे है देवदार
सुबह एक पहाड़ के पीछे से
निकला था सूरज
और धीमी गति से
चलते हुए झांकता रहा मेरी खिड़की में
धीरे धीरे साथ छोड़ दिया सूरज ने
और थोड़ी देर बाद
किसी पहाड़ के पीछे छुप जायेगा
आभाहीन होकर साहित्य में
पर विज्ञानं उसे छुपने नहीं देखा
और न आभाहीन ही होने देगा
यही तो लड़ाई है
विज्ञानं और साहित्य में
एक कल्पनाओं की उड़ान
उड़ लेना चाहता है
उन्मुक्त होकर
जमीन से आकाश तक
और दूसरा
पटक देता है यथार्थ की जमीन पर
पर
मेरी खिड़की जीवन है
और सूरज की यात्रा हो
या पहाड़ और वृक्ष
जीवन यात्रा का संदेश देते है
अपने तरीके से
इतना चमकता सूरज
खो जायेगा कुछ देर में
और
कालिमा ढक लेगी जीवन को
और पसार देगी
जीव जंतुओं को तन्द्रा में
कुछ कल फिर उठेंगे
और चल पड़ेंगे फिर
जीवन की जद्दो जहद में
और
कुछ सोये ही रह जायेंगे
अनन्त यात्रा के लिए
पूरी हो जायेगी उनकी जीवन यात्रा
और छोड़ जायेगी कई सवाल
और बना जायेगी बहुतो को सवाल
ये खिड़की है या संसार का झरोखा है
निकल नहीं पा रहा हूँ मैं
पर महसूस रहा हूँ
किसी की पदचाप माल पर
उस टेनिस कोर्ट के सामने की सड़क पर
और
सुनाई पड़ रही है मुझे खिलखिलाहट
कुफरी के बर्फ में धंस गए पांवों की
जद्दोजहद के साथ
की आ पड़ा एक बर्फ का गोला मेरे ऊपर
फिर दूसरा और तीसरा ,पता नहीं कितने
बास्केटबॉल का हुनर काम आ रहा था
मैं भी बच नहीं रहा हूँ
और
क्यों बचू इस खेल से जो
आनंदित कर रहा है
अरे कहा खो गए
बर्फ के एक छोटे से पहाड़ के पीछे से
आती है आवाज
और अचानक लुढ़क जाता है
क्लामंडी खाते हुए मेरे पास आने को
चाय लाऊं साहब
ये क्या
यहाँ विज्ञानं ने नहीं
सेवाभाव ने तोड़ दिया
मेरा यादो का क्रम
विलुप्त हो गया वो
अनजाने को देख कर
फिर बहुत कोशिश की
कि आ जाये दुबारा
मेरे चिंतन और यादो के आगोश में
पर ना
जब मैं थी आप के पास
तो कोई आया कैसे
क्या चाय जरूरी है या मैं
बहुत कहा हां केवल और केवल आप
पर रूठ गए तो रूठ गए
बहुतो के जीवन में होता है
की रूठा हुआ फिर मानता ही नहीं ।
सूरज को भी मैं कहा पकड़ पाया
मन भर अपनी खिड़की में
चला ही गया अपनी तय यात्रा पर
उनको भी तो बहुत कोशिश किया था
पकड कर रखने की
कोई अपने जीवन को
छोड़ना भी कहा चाहता है क्या
पर कभी तेज बहाव में
कभी पहाड़ की फ़िसलन पर
हाथ छूट ही जाते है
छूट गया मेरा हाथ भीं
अचानक लगा की
कोई साया था मेरी खिड़की पर
पर मेरी आंखे कमजोर पड़ गयी
देवदार के ये पेड़ भी तो कभी भी
छोड़ देते है जमीन
और
ये पहाड़ भी कितने डरावने लगते है
कभी कभी
जब थोड़ा सा हिलती है जमीन
और क्रोधित हो ये टूट पड़ते है
जो भी आ जाये जद में उनपर
कही ऐसा तो नहीं कि
उनका हाथ नहीं छूटना था
पर इन पहाड़ो की तरह ही कुछ हुआ
और गिर पड़ा पहाड़
मेरे भी जीवन पर मेरे अपनों पर
हां तो बर्फ के गोले जो उन्होंने फेंके थे
वो न चोट देते है और न भिगोते है
पर भिगो देते है अपना तन और मन।
और सराबोर कर देते है प्रेम से
पर कभी कभी पता ही नहीं होता
कि बर्फ की चादर एक दिखावा है छल है
उसके नीचे एक खाई है
लील लेने को तैयार
जीवन में भी ऐसी बहुत सी खाइयां आती है
उस दिन टेनिस कोर्ट के सामने की सड़क पर
फिसल गया था मैं
और
उनकी खनकती हंसी रुक ही नहीं रही थी
अचानक चेहरा हो गया था सर्द
और निकल पड़ी उनकी चीख
जब नीचे सरकता गया मैं
हाथ में आ गयी कोई घास जैसी चीज
और रोक लिया था पीछे किसी के हाथों ने
तुरंत मोची के पास जाकर ठुकवाये थे
जूते के तले और एड़ियों में
रबड़ या टायर के टूकड़े
फिसलने से बचने को
पहली बार सुना था कुछ चीनी खानों का नाम
उस दिन शाम
शाम कहा रात थी वो
ये पहाड़ मुझें न चैन से सोने दे रहा न जगने
पकड़ने की कोशिश करता हूँ यादो को
कितनी तरह के भाव बदल देते है पल पल
इतनी दूर से पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ
वो होटल और उसकी वो खिड़की
इससे निहारते रहे हम दृश्य
और समेटते रहे अपनी यादो को
आज भी तो यादे ही तो समेट रहा हूँ मैं
तभी कोई आवाज आती है कही दूर से
मुझे लगता है
कोई इठला कर बोल रहा है
यहाँ 25 साल बाद हम फिर आएंगे ।
खो गयी वो आवाज ,वो हंसी
दूर कही बहुत दूर
पर सुनाई पड़ रही मुझे
आज 34 साल बाद भी
बिलकुल जीवंत जैसे वीणा के तार
छेड़ दिए हो किसी ने
पर
जाने देता हूँ यह यात्रा और ढूढता हूँ
कुछ निशान ,कुछ यादे ,कुछ वादे
और आंख बंद कर लेता हूँ
पहाड़ की हरियाली
कुछ स्याह होती जा रही है
सूरज की बिछडन के साथ
और
वो खनखनाहट कही
अनंत में डूबती जा रही है ।
बस एक वादे के साथ
पच्चीस साल बाद फिर यही आएंगे ।