शुक्रवार, 19 मई 2017

फट न जाये अस्तित्व ही ।

क्या कभी आपने महसूसा है
की
बाहर घनघोर सन्नाटा हो
और
अंदर दमघोटू और इतना शोर
की
लगता है नसे ही नही
शरीर की कोशिकाएँ भी
फट पड़ेंगी
नही हो सकती इससे बड़ी सज़ा
फांसी में
एक झटके से मुक्ति मिल जाती हैं
और
अजीवन कारावास में भी
लोगो का साथ
पर ऐसी सज़ा कल्पनातीत है
पता नही
किसी को इस सज़ा का एहसास है
या नही
इससे ज्यादा लिखा नही जा सकता
इस विषय पर
जेल से भी पेरोल मिल जाती है
जिंदगी में भी
कोई पेरोल की व्यवस्था हो सकती है
कौन मुक्ति देगा इससे
मुक्ति मिलेगी भी या नही ।
या
सन्नाटा और
अथाह लहू में बहता शोर
साथ साथ चलते रहेंगे
जब तक
फट न जाये अस्तित्व ही ।

पहले हमसे यारी कर मिल करके गद्दारी करमैं हारूं और जीते तू ऐसी साज़िश भारी कर ।

पहले हमसे यारी कर
मिल करके गद्दारी कर
मैं हारूं और  जीते   तू
ऐसी साज़िश भारी कर ।

कुछ सवाल है तेरे मेरे दरमियाँ जवाब में तू भी चुप में भी चुप ।

कुछ सवाल है तेरे मेरे दरमियाँ
जवाब में तू भी चुप में भी चुप ।

हम किस कदर लड़ते थे तुम्हारे लिए फिर तुमने निगाहों से गिरा क्यो लिया ।

हम किस कदर लड़ते थे तुम्हारे लिए
फिर तुमने निगाहों से गिरा क्यो लिया ।

गुरुवार, 18 मई 2017

कुछ सवाल है तेरे मेरे दरमियाँ जवाब में तू भी चुप में भी चुप ।

कुछ सवाल है तेरे मेरे दरमियाँ
जवाब में तू भी चुप में भी चुप ।

मतलबी तो हजारो मिले है कभी कोई दोस्त होगा क्या ?

मतलबी तो हजारो मिले है
कभी कोई दोस्त होगा क्या ?

चलो अब हम टूट जाते है चलो तुम लूट लो हमको ।

चलो अब हम टूट जाते है
चलो तुम लूट लो हमको ।

बुधवार, 17 मई 2017

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा 
हा
मुझे बचपन से गुस्सा आता था
किसी इंसान को अपशब्दों के साथ
जाति के  संबोधन से
मुझे गुस्सा आता था
शाहगंज से लखनऊ होते आगरा तक
मैं ट्रेन के दरवाजे पर
या बाथरूम के पास बैठ कर आता था
की
भीड़ ज्यादा है तो 
ट्रेन में डिब्बे क्यो नही बढ़ते
मुझे गुस्सा आता था जब कोई
दूसरों के मैले को उठा कर
सर पर लेकर जाता था
गुस्सा आता था जब दूर से फेंक कर
किसी को खाना दिया जाता था
गुस्सा आता था
जब सायकिल के हैंडिल पर
दो बाल्टियां
और
पीछे कैरियर पर मटका रख
दो मील दूर पानी लेने जाता था
शहर में
गुस्सा आता था
जब गांव जाने के लिए
मीलो सर पर बक्सा रख कर
चलना पड़ता था अंधेरे ने
गुस्सा आता था
जब गांव में बिजली भी नही थी
गुस्सा आता था
जब पुलिस अंकल किसी को
बिना कारण बांध कर ले जाते थे
माँ बहन की गालियां देते हुए
और
न जाने कितनी बातो पर गुस्सा आता था
पर किसी भी चीज को
बदल सकने की ताकत नही थी
इस बच्चे में
उसके बाद भी
बहुत गुस्सा आता रहा रोज रोज
और आज भी गुस्सा खत्म नही हुआ
रामपुर तिराहे पर गुस्सा हुआ था मैं
हल्ला बोल पर भी गुस्सा दिखाया था
पर खुद शिकार हो गया
हर बात पर जिस पर
जिंदा आदमी को गुस्सा आना चाहिए
मुझे तो गुस्सा आता रहा
और
मैं दुश्मनो में शुमार हो गया
मुझे निर्भया ,दादरी ,मुजफ्फरनगर
और
रंगारंग कार्यक्रम पर भी गुस्सा आया
पर
ताली पिटती भीड़ में
खो गया मेरा गुस्सा
और में भी खो गया साथ साथ
पानी पीकर या पानी के बिना
लोगो के मर जाने पर भी आया गुस्सा
संसद हो या मुम्बई
मेरा गुस्सा सड़क पर आया
लॉटरी हो या शहादत
सड़क पर फूटा गुस्सा
वो खरीदने अथवा मारने की धमकी
नही रोक सकी मेरे गुस्से को
धक्के खाती जनता और कार्यकर्ता
भी बने मेरे गुस्से के कारण
मुझे आज भी गुस्सा आता है
बार बार बदलते कपड़ो पर
अन्य देशों में मेर देश की बुराई पर
पिटती विदेश नीति
और अर्थव्यवस्था पर
रोज शहीद होते सैनिको पर
कश्मीर ,अरुणाचल और नागालैंड पर
रोज के बलात्कार पर
रोहतक से छत्तीसगढ़ तक पर
गुस्सा आया है सहारनपुर पर मथुरा पर
इंच इंच में होते अपराध पर
थाने से तहसील होते हुये
आसमान तक के भ्रष्टाचार पर
भाषणों के खेप पर
आसमान छूती महंगाई पर
न जाने कितनी चीजे है
गुस्सा होने को
पर अब
में देशद्रोही करार कर दिया जाता हूँ ।
और
मेरा गुस्सा अपनी नपुंसकता
और
आवाज के दबने पर उफान मारता है
पर
मेरे छोटा हाथ , मेरा छोटा सा कद
और साधारण आवाज
सिमट जाती है कागज के पन्नो पर
फेसबुक ट्विटर ,ब्लॉगर पर
और दीवारों के बीच
क्योकि इस देश मे गरीब के लिए
गरीबी और बेकारी से लड़ने को भी
धर्म या जाति की भीड़ चाहिए
जो मेरे पास नही है
और
चाहिए धन काफी धन
जो मंच सज़ा सके
,रथ बना सके
और मीडिया को बुला सके ।
जो मेरे पास नही है
गुस्सा होकर बैठ जाता हूँ लिखने
कोई कविता या कुछ विचार
ताकि गुस्सा
समय के थपेड़े में मर न जाये ।

मंगलवार, 16 मई 2017

रोज की जिंदगी और ये घर ।

रोज की जिंदगी और ये घर ।
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एक घर है
जिसके बाहर एक गेट
और
उससे बाहर मैं तभी निकलता हूँ
जब शहर कर बाहर जाना हो
या डॉक्टर के यहा जाने की मजबुरी
फिर एक लान है
जहा अब कभी नही बैठता
किसी के जाने के बाद
फिर एक बरामदा
वहाँ भी आखिरी बार तब बैठा था
जब बेटियाँ घर पर थी
और बारिश हुई थी
और
मेरा शौक बारिश होने पर
बरामदे में बैठ कर हलुवा
और गर्मागर्म पकौड़ियां खाना
और अदरक की चाय
वो पूरा हुआ था आखिरी दिन
हा
ड्रॉईंग रूम जरूर गुलजार रहता है
वही बीतता है ज्यादा समय
सामने टी वी , मेज पर लैपटॉप
और
वो खिड़की
जिससे बाहर आते जाते लोग एहसास किराते है
की आसपास इंसान और भी है
अंदर मेरा प्रिय टी कार्नर
जहा सुबह क्या दोपहर तक बीत जाती है
नाश्ते चाय ,अखबार ,फोन और फेसबुक  ट्विटर और ब्लॉगर में
पता नही चलता कैसे बिना नहाए शाम भी हो जाती हूं उस कोने में
बच्चो का कमरा न जाये तो अच्छा
अब कौन याद करे
रसोई में जाना जरूरी है
और बाथरूम में भी
थोड़ा लट लो वाकर पर
और खुद को बेवकूफ बना लो
की हमने भी फिटनेस किया
पांच बदाम भी कहा लो
कपड़े गंदे हो गए मशीन है
बस डालना और निकलना ही तो है
नाश्ता और खाना
और कुछ अबूझ लिखने की कोशिश
घृणा हो गयी ज्ञान और किताबो से
जिंदगी बिगड़ दिया इन्होंने
पर बेमन से पढने की कोशिश
कभी कभी आ जाता है कोई
भूला भटका , उसकी और अपनी चिंता चाय
और
बिना विषय के समय काटना
लो हो गयी शाम
है एक साथ कर ले सुरमई उसके साथ
और
कुछ पेट मे भी चला ही जाए
बिस्तर कितनी अच्छी चीज है
नीद नही आ रही लिख ही दे कुछ
नीद दवाई भी क्या ईजाद किया है
जीभ के नीचे दबावो
और सो जाओ बेफिकर
अब कल की कल देखेंगे
छोटा पडने वाला घर
किंतना बड़ा हो गया है
और
छोटे से दिन हफ्ते जैसे हो गए है
पर बीत जाता है हर दिन भी
और घर के कोने में सिमट कर
भूल जाती है बाहरी दीवारे ,कमरे
आज भी बीत गया एक दिन
और रीत गया जिंदगी से भी कुछ
कही से बजी कोई पायल
नही रात को एक बजे का भ्रम
सो जाता हूँ
ऐसे ही कल के इंतजार में अकेला ।
हा नितांत अकेला
बस छत ,दीवारे और सन्नाटा
ओढ़कर ।

गुरुवार, 11 मई 2017

मौत और अकेलापन ________________

मौत और अकेलापन
________________
मौत कितनी
खूबसूरत चीज होती है
हो जाता है
सब कुछ शांत शांत
गहरी नींद
तनावमुक्त ,शांत शांत
न किसी का लेना
न किसी का देना
कोई भाव ही नही
कोई इच्छा ही नही
न डर ,न भूख ,न छल
न काम न क्रोध
बस शांति ही शांति
विश्राम ही विश्राम
कोई नही दिख रहा
और सब देख रहे है
न रोटी की चिंता
न बेटे और बेटी की
न घर की चिंता
न बिजलो और पानी की
न बैंक की चिंता
न टैक्स जमा करने की
न काम की चिंता
और न किसी छुट्टी की
न किसी खुशी की चिंता
न किसी की नाराजगी की
निर्विकार ,स्थूल
हल्का हल्का सब कुछ
देखो
कितना सपाट हो गया है चेहरा
कोई पढ़ नही पा रहा कुछ भी
किसी को
गजब का तेज लग रहा है
बहुत कुछ है खूबसूरत
पर मौत से तो कम
और मुझे तो
मौत से भी ज्यादा अक्सर
मजेदार लगता है अकेलापन
सन्नाटा ही सन्नाटा
कोई आवाज ही नही
खुद की सांसो के सिवाय
कोई भी नही खुद के सिवाय
पंखे के आवाज तो
कभी कभी फोन की
और
हा दब गया रिमोट
तो टी वी की भी आवाज
तोड़ देती है सन्नाटा
और
झकझोर देती है अकेलेपन को
पर
गजब का मुकाबला है
मौत और अकेलेपन का
हा
एक फर्क तो है दोनो में
मौत खूबसूरत होती है
पर अकेलापन बदसूरत
मौत शांत होती है
पर अकेलापन
अंदर से विस्फोटक ।
मौत के बारे में
लौट कर किसी ने नही बताया
उसका अनुभव
पर
अकेलेपन को तो
मैं जानता भी हैं
और पहचानता भी हूँ
अच्छी तरह ।
मौत का अंत अकेलापन है
और
अकेलेपन का अंत मौत ।
इसलिए
मौत से डरो मत उसे प्यार करो
अकेलेपन से हो सके तो भागो
और
इसे स्वीकारने से इनकार करो ।

बुधवार, 10 मई 2017

पहले भी नवाबो और राजाओं की रक्काशा और गणिकाएँ होती थी

पहले भी नवाबो और राजाओं की
रक्काशा और गणिकाएँ होती थी
पर उनकी भी कुछ सीमाएं होती थी
आज की राजनीति में
सिर्फ रक्काशा और गणिकाएँ होती है
उसकी कुछ भी सीमाएं नही होती है ।
तब के राजा अपना काम खत्म कर महफ़िल जमाते थे
आज के हर वक्त सिर्फ काम की महफ़िल जमाते है
तबके राजा आमसभा से अलग पर्दे में हरम बनाते थे
आज के आमसभा को ही हरम बना देते है
तब कोई खासियत होती थी गणिका और रक्काशा बनने की
आज बस औरत जो जाना ही काफी है
तब गणिका और रक्काशा भी कर्मच्युत नही होने देती थी ज्यादातर
अब कर्म लायक ही नही रहने देती है
तब की गणिकाओं ने युद्ध भी लड़े और जौहर भी किये
अब के राजाओं में गणिकाओं के लिए युद्ध हो रहे और कर्मो का जौहर भी ।
हा बहुत फर्क हो गया है समय के साथ आदत और अंदाज़ में
बड़े से बड़े राजा के यहां आप का हुनर और बेबसी दोनों मार खा जाएंगे
फिर जरा हुस्न को आजमाइए जब तीर निशाने पर ही जायेंगे ।
हमसे कहते है हमारी इज्जत करो और जय जय कार करो
हा और तुम अस्मत ,दौलत और सत्ता का केवल और केवल व्यापार करो ।
वैसे जिनकी अजेय और व्यापक सत्ताएं थी और बड़े बड़े हरम थे उनके भी निशा  कहा है
फिर आज वाले तो लोकतन्त्र के जमूरे है
इनकी निशानी भी कहा होगी ।
गणिका से गणिका तक ही पूरा हो जायेगा सफर पूरा जिन्दगी का ।