बुधवार, 17 मई 2017

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा

लोकतंत्र का नपुंसक गुस्सा 
हा
मुझे बचपन से गुस्सा आता था
किसी इंसान को अपशब्दों के साथ
जाति के  संबोधन से
मुझे गुस्सा आता था
शाहगंज से लखनऊ होते आगरा तक
मैं ट्रेन के दरवाजे पर
या बाथरूम के पास बैठ कर आता था
की
भीड़ ज्यादा है तो 
ट्रेन में डिब्बे क्यो नही बढ़ते
मुझे गुस्सा आता था जब कोई
दूसरों के मैले को उठा कर
सर पर लेकर जाता था
गुस्सा आता था जब दूर से फेंक कर
किसी को खाना दिया जाता था
गुस्सा आता था
जब सायकिल के हैंडिल पर
दो बाल्टियां
और
पीछे कैरियर पर मटका रख
दो मील दूर पानी लेने जाता था
शहर में
गुस्सा आता था
जब गांव जाने के लिए
मीलो सर पर बक्सा रख कर
चलना पड़ता था अंधेरे ने
गुस्सा आता था
जब गांव में बिजली भी नही थी
गुस्सा आता था
जब पुलिस अंकल किसी को
बिना कारण बांध कर ले जाते थे
माँ बहन की गालियां देते हुए
और
न जाने कितनी बातो पर गुस्सा आता था
पर किसी भी चीज को
बदल सकने की ताकत नही थी
इस बच्चे में
उसके बाद भी
बहुत गुस्सा आता रहा रोज रोज
और आज भी गुस्सा खत्म नही हुआ
रामपुर तिराहे पर गुस्सा हुआ था मैं
हल्ला बोल पर भी गुस्सा दिखाया था
पर खुद शिकार हो गया
हर बात पर जिस पर
जिंदा आदमी को गुस्सा आना चाहिए
मुझे तो गुस्सा आता रहा
और
मैं दुश्मनो में शुमार हो गया
मुझे निर्भया ,दादरी ,मुजफ्फरनगर
और
रंगारंग कार्यक्रम पर भी गुस्सा आया
पर
ताली पिटती भीड़ में
खो गया मेरा गुस्सा
और में भी खो गया साथ साथ
पानी पीकर या पानी के बिना
लोगो के मर जाने पर भी आया गुस्सा
संसद हो या मुम्बई
मेरा गुस्सा सड़क पर आया
लॉटरी हो या शहादत
सड़क पर फूटा गुस्सा
वो खरीदने अथवा मारने की धमकी
नही रोक सकी मेरे गुस्से को
धक्के खाती जनता और कार्यकर्ता
भी बने मेरे गुस्से के कारण
मुझे आज भी गुस्सा आता है
बार बार बदलते कपड़ो पर
अन्य देशों में मेर देश की बुराई पर
पिटती विदेश नीति
और अर्थव्यवस्था पर
रोज शहीद होते सैनिको पर
कश्मीर ,अरुणाचल और नागालैंड पर
रोज के बलात्कार पर
रोहतक से छत्तीसगढ़ तक पर
गुस्सा आया है सहारनपुर पर मथुरा पर
इंच इंच में होते अपराध पर
थाने से तहसील होते हुये
आसमान तक के भ्रष्टाचार पर
भाषणों के खेप पर
आसमान छूती महंगाई पर
न जाने कितनी चीजे है
गुस्सा होने को
पर अब
में देशद्रोही करार कर दिया जाता हूँ ।
और
मेरा गुस्सा अपनी नपुंसकता
और
आवाज के दबने पर उफान मारता है
पर
मेरे छोटा हाथ , मेरा छोटा सा कद
और साधारण आवाज
सिमट जाती है कागज के पन्नो पर
फेसबुक ट्विटर ,ब्लॉगर पर
और दीवारों के बीच
क्योकि इस देश मे गरीब के लिए
गरीबी और बेकारी से लड़ने को भी
धर्म या जाति की भीड़ चाहिए
जो मेरे पास नही है
और
चाहिए धन काफी धन
जो मंच सज़ा सके
,रथ बना सके
और मीडिया को बुला सके ।
जो मेरे पास नही है
गुस्सा होकर बैठ जाता हूँ लिखने
कोई कविता या कुछ विचार
ताकि गुस्सा
समय के थपेड़े में मर न जाये ।

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