शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

जब और जितनी बार भी

जब और जितनी बार भी
अपने घर लौटता हूँ
और
दरवाजा खोलता हूँ
बिजली सी कौंध जाती है
और
दीवारो पर बन जाती है
अंनगिनत तस्वीरें
और
मन का बादल बरस उठता है ।
लहरो पर तैर जाती है
यादो की कितनी कागजी नावें
और कागज की नाव
तो कागज की ही होती है
खो जाती है अथाह पानी में
और
पसर जाता है सन्नाटा
दीवारो से छत तक
और
बैठक से बिस्तर तक ।

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